-देवेंद्र गौतम

पुस्तकः विश्व की प्राचीनतम सभ्यता लेखकः पं. अनूप कुमार वाजपेयी,कई पुरस्कारों से पुरस्कृत समीक्षा प्रकाशन, दिल्ली, मुजफ्फरपुर, मूल्य-2000 रुपये लेखक ने राजमहल पहाड़ियों और चट्टानों पर संसार के प्राचीनतम आदिमानव के पदचिन्ह ढूंढ निकाले। पता-वाजपेयी निलयम, नया पारा, दुमका झारखंड
सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन के जवान राकेश्वर सिंह मिन्हास नक्सलियों की कैद में हैं। उन्हें छुड़ाने के लिए विंग कमांडर अभिनंदन जैसी कोई कार्रवाई करने की मांग हो रही है। उनका चार साल की बेटी का पिता को छोड़ देने का मार्मिक वीडियो लोगों के ह्रदय को झकझोर रहा है। गृहमंत्री अमित शाह ने सुरक्षा बल को फ्री हैंड दे दिया है। जैसे चाहें नक्सलियों से निपटें। लेकिन अभी राकेश्वर की सुरक्षित वापसी सबसे बड़ी चुनौती है।
राकेश्वर बीजापुर-सुकमा नक्सली हमले के बाद लापता हो गए थे। इस कांड में सुरक्षा बलों के 22 जवान शहीद हो गए थे। 31 लोग घायल हैं। अब माओवादियों ने दावा किया है कि राकेश्वर उनके कब्जे में हैं। वे उन्हें सशर्त मुक्त करने को तैयार हैं। उनकी दो मांगें हैं पहली यह कि उस इलाके से सुरक्षा बलों को वापस लिया जाए। दूसरा यह कि सरकार उनके साथ वार्ता के लिए मध्यस्थ बहाल करे और उनके नामों की घोषणा करे। माओवादियों ने यह प्रस्ताव एक पर्चा जारी दिया है। उन्होंने मुठभेड़ के दौरान सुरक्षा बल से लूटे हुए 14 हथियार, दो हजार से अधिक कारतूस और अन्य सामानों का भी खुलासा किया है। इसमें सात एके 47 राइफल, दो एसएलआर और एक लाइट मशीन गन शामिल है। बयान के साथ लूट के हथियारों का और बंधक जवान का फोटो भी जारी किया है। इससे जाहिर है कि वे सरकार के साथ समझौता वार्ता के जरिए समस्या का समाधान चाहते हैं। लेकिन उनकी नीयत को तब साफ माना जाता अगर यह प्रस्ताव उनकी ऊपरी कमेटियों की ओर से आता। यह पेशकश है सीपीआई माओवादी की दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी का। उसके प्रवक्ता विकल्प के नाम से यह पर्चा जारी किया गया है। सभी जानते हैं कि नक्सली संगठनों में पदाधिकारियों के नाम वास्तविक नहीं होते। जगह-जगह बदलते रहते हैं। सवाल है कि क्या नक्सलियों की एक जोनल कमेटी से समझौता हो जाने पर नक्सल समस्या का समाधान हो जाएगा? बिल्कुल नहीं होगा। जबतक सीपीआई माओवादी की केंद्रीय कमेटी और पोलित ब्यूरो के साथ समझौता वार्ता नहीं होगी कत्तई समाधान नहीं निकलेगा।
इसमें कोई शक नहीं कि समाधान हथियार से नहीं बल्कि वार्ता से ही निकलता है। आतंकी और उग्रवादी संगठनों के साथ की सरकारों की वार्ता होती है। पूरी दुनिया में होती है। भारत सरकार को भी वार्ता से कभी परहेज़ नहीं रहा है। लेकिन इसके लिए अनुकूल माहौल चाहिए। बारूद की ढेर पर बैठकर सिर्फ धमाके किए जा सकते हैं, समझौता नहीं किया जा सकता। पाकिस्तान के साथ भी वार्ता इसीलिए नहीं हो पा रही है कि भारत सरकार का मानना है कि आतंकवाद और वार्ता को एक साथ मुमकिन नहीं। 22 जवानों की शहादत और 31 जवानों के जख्मों की कीमत पर वार्ता संभव नहीं है। नक्सलियों ने स्वीकार किया है कि मुठभेड़ में उनके भी चार लोग मारे गए हैं। लूट के सामान का भी व्यौरा दिया है। लेकिन यह समझौता वार्ता की पेशकश का तरीका नहीं है। इस माहौल में सरकार यदि उन्हें वार्ता की मेज़ पर बुलाती है तो यह राजसत्ता के आत्मसमर्पण जैसा होगा। राजसत्ता जनहित में, शांति व्यवस्था के लिए वार्ता तो करती है लेकिन उग्रवाद के सामने मत्था तो नहीं टेक सकती। इस हमले को माओवादियों की दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के स्थानीय दस्ते ने अंजाम दिया है। हो सकता है ऊपरी कमेटियों ने इसके लिए हरी झंडी दी हो लेकिन उनकी सीधी भागीदारी नहीं है। इन सबके बावजूद यदि माओवादी संगठन हिंसा का रास्ता छोड़कर मुख्यधारा में आने को तैयार है तो इसके लिए शीर्ष नेताओं को बात करनी होगी। यदि सीपीआई माओवादी की केंद्रीय कमेटी भी सचमुच वार्ता के पक्ष में है तो उसे सबसे पहले अपनी जोनल कमेटी को निर्देश देना चाहिए कि बंधक जवान को तत्काल मुक्त करे और मुठभेड़ में शामिल दस्ते के लोग हथियार समेत आत्मसमर्पण कर दें। इसके बाद ही समझौता वार्ता का उपयुक्त माहौल बनेगा।
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने समझौते की पेशकश पर अभी तक कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है। राकेश्वर को छुड़ाने के लिए किसी अन्य रणनीति पर काम चल रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी इस प्रकरण पर कोई बयान नहीं आया है। अमित शाह फिलहाल गुस्से में हैं। वे नक्सलियों से शहीद जवानों के खून का हिसाब लेना चाहते हैं। उनका तेवर यही बताता है कि नक्सलियों को सबक सिखाने के बाद ही वे किसी और प्रस्ताव पर विचार करेंगे।
अगर दोनो पक्ष समझौता वार्ता पर सहमत हो जाते हैं और इसके लिए अनुकूल माहौल बनाते हैं तो मध्यस्थों का कोई संकट नहीं है। आदिवासियों के बीच काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता मध्यस्थता कर सकते हैं।
बौद्धिक वर्ग के कुछ लोग दोनो पक्षों को स्वीकार्य हो सकते हैं। इस हमले के बाद बस्तर क्षेत्र में आदिवासियों के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी ने अपने स्तर पर पहल की है। उन्होंने नक्सलियों से अपील की है कि वे बंधक जवान को रिहा कर दें। अगर इसमें देर होगी तो वह मुठभेड़ स्थल की ओर जाएंगी और माओवादियों से बात करने की कोशिश करेंगी। लेकिन इस मामले में थोड़े आत्ममंथन की भी जरूरत है। लापता जवान के परिजनों को उसके अगवा होने की सरकारी स्तर पर जानकारी तक नहीं दी गई। उन्हें मीडिया के जरिए जानकारी मिली। सवाल उठ सकता है कि जब जीवित जवान के परिजनों को सूचना नहीं दी जाती तो शहीदों के परिवार का किसना ध्यान रख जाएगा। सुरक्षा बल के जवानों के प्रति आत्मीयता और संवेदनशीलता जरूरी है। इसपर विचार किया जाना चाहिए।